Wednesday, November 28, 2012

FDI in India, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश


देश में इन दिनों सरकार के एक फैसले की वजह से करोड़ों खुदरा व्यापारियों और किसानों की सांस अटकी हुई है. सरकार का खुदरा व्यापार में एफडीआई की मंजूरी देने से व्यापार जगत में भारी उठापटक का दौर शुरू हो गया है. कोई कहता है एफडीआई आम खुदरा व्यापारियों के लिए जोखिम भरा है तो कुछ की राय में एफडीआई से देश को बहुत ज्यादा फायदा होगा. आइए क्रमानुसार एफडीआई के बारे में हर बात जानें. इस अंक में हम एफडीआई और इसके नुकसानों के बारे में जानेंगे.


क्या है एफडीआई: What is FDI

एफडीआई के नफा-नुकसान को समझने से पहले जरूरी है कि हम यह समझें की एफडीआई होती क्या है? एफडीआई का अर्थ होता है प्रत्यक्ष विदेशी निवेश. किसी एक देश की कंपनी का दूसरे देश में किया गया प्रत्यक्ष विदेशी  प्रत्यक्ष विदेशी कहलाता है जिसे एफडीआई (Foreign Direct Investment)भी कहते हैं.

ऐसे निवेश से निवेशकों को दूसरे देश की उस कंपनी के प्रबंधन में कुछ हिस्सा हासिल हो जाता है जिसमें उसका पैसा लगता है.

सरकार का एफडीआई पर फैसला

हाल ही में सरकार ने जिन क्षेत्रों में एफडीआई यानि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दी है उनमें शामिल हैं:


  • बहुब्रांड खुदरा कारोबार में 51 फीसदी एफडीआई
  • घरेलू विमानन कम्पनियों में विदेशी विमानन कम्पनियों की अधिकतम 49 फीसदी एफडीआई को इजाजत दे दी.
  • प्रसारण सेवा उद्योग की विभिन्न गतिविधियों में विदेशी कंपनियों को 74 प्रतिशत तक हिस्सेदारी की अनुमति


क्या होगा एफडीआई का स्वरूप

सबसे पहले तो यह जान लेना जरूरी है कि बहुब्रांड खुदरा कारोबार में एफडीआई तभी लागू होगा जब राज्य सरकार इसे मंजूर करेगा. राज्य सरकार की मंजूरी के बाद ही विदेशी कंपनियों को मल्टी ब्रांड रिटेल स्टोर खोलने की अनुमति मिलेगी. ऐसे स्टोर 10 लाख से ज्यादा आबादी वालेशहरों में ही खोले जा सकेंगे और विदेशी कंपनियों को कम से कम 10 करोड़ डॉलर का निवेश करना होगा.

एफडीआई के नुकसान

आइए अब जानें एफडीआई यानि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से क्या नुकसान होंगे. इस क्रम में शुरुआत करते हैं कृषि के क्षेत्र से.

कृषि के क्षेत्र में एफडीआई से नुकसान

जो लोग एफडीआई का समर्थन कर रहे हैं उनके अनुसार एफडीआई लागू होने से किसानों को फायदा होगा. उनके अनुसार कंपनियां सीधे किसानों से उत्पाद खरीदेंगी और बिचौलिए खत्म हो जाएंगे. बिचौलिए खत्म होने से किसानों को बहुत ज्यादा फायदा होगा. लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एफडीआई के नुकसान को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. सप्लाई चेन में विदेशी कंपनियों के दबदबे से किसानों को पूरी कीमत मिलने की राह में दुविधा होगी. क्वालिटी चेक और सर्टिफिकेशन के नाम पर उनका जमकर शोषण किया जाएगा.

जिस सप्लाई चेन के बनने की बात सरकार खुद कर रही है वो काम भी उसी का है.अगर सरकार सप्लाई चेन दुरस्त कर दे तो किसानों को इसका फायदा बिना एफडीआईके ही मिलने लगेगा.
एफडीआई से कैसे बेरोजगारी बढ़ेगी?

सरकार का कहना है कि एफडीआई आने से देश में कई रिटेल शॉप खुलेंगे जो देश में लाखों रोजगार पैदा करेंगे. लेकिन क्या यह रोजगार उन बेरोजगारों का पेट भर पाएगी जो देश के करोड़ों खुदरा व्यापारियों के बेरोजगार होने से होगी? देश में इस समय करोड़ों खुदरा व्यापारी हैं और इस बात की संभावना अधिक है कि एफडीआई आने से इन खुदरा व्यापारियों का पतन हो जाएगा.

जानकारों का मानना है कि जिन नौकरियों की बात सरकार कर रही है वह है सेल्समैन और सेल्सगर्ल की. अगर एफडीआई लागू होता है तो भारत सेल्समैन और सेल्सगर्ल का देश बनकर रह जाएगा.

एफडीआई सीमित कर देता है विकल्प

जब भी कोई विदेशी कंपनी किसी दूसरे देश के खुदरा व्यापार में आती है और वहां अपना दबदबा बनाती है तो वह वहां साधनों का विकल्प बहुत कम कर देती है. अब आप अमेरिका या चीन जाकर देखिए यहां आपको खुदरा सामान की गिनी-चुनी दुकानें मिलेंगी. जानकरों का मानना है कि एफडीआई के आने से उपभोक्ताओं के विकल्प सीमित हो जाते हैं.


भारत जैसे विविधता भरे बाजार में उपभोक्ताओं के सामने असीमित विकल्प होते हैं. बाजार में घुसने के साथ ही बड़ी रिटेल कंपनियों का पहला बड़ा लक्ष्य प्रतिस्पर्धा को खत्म करना और अपना दबदबा कायम करना होगा जिससे हो सकता है उपभोक्ताओं को बहुत ज्यादा नुकसान हो.

एफडीआई के आने से बढ़ेंगे दाम

खुदरा व्यापार में एफडीआई का विरोध करने वालों ने वालमार्ट को निशाना बनाते हुए कहा है किसप्लायरों को कम से कम कीमत पर सामने बेचने को मजबूर करने से लेकर उत्पादों की कीमतों में इजाफा और उपभोक्ता के विकल्प सीमित करने की रणनीति की वजह से ही वालमार्ट ने आज यह कामयाबी हासिल की है. वालमार्ट सस्ते से सस्ता सामान बचने का दावा करती है. लेकिन इसका लक्ष्य उपभोक्ताओं को सस्ता सामान दिलाना नहीं बल्कि अपने शेयरधारकों का मुनाफा बढ़ाना है.

यह तो है खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से होने वाले नुकसानों के बारे में एक संक्षिप्त विवरण. अगले अंक में हम एफडीआई के तथाकथित फायदों के बारे में भी चर्चा करेंगे और जानेंगे कि एफडीआई के सिक्के का दूसरा पहलू कितना सुखद और कितना सपनीला है?

नियम 184 और नियम 193 ( Rule. 184 & Rule. 193)


खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मुद्दे पर संसद के शीतकालीन सत्र में विपक्ष और सरकार में तनातनी का मौहौल है और नियम 184 और नियम 193 का जिक्र बार बार आ रहा है। आईये संक्षेप में जाने ये नियम क्या हैं?

भारतीय सविंधान के लागू होने के के बाद 17 अप्रैल, 1952 को प्रथम लोकसभा के गठन के साथ साथ उसके सञ्चालन की प्रक्रिया के नियम भी तैयार कर लिए गए जो मुख्य रूप से संविधान सभा के लिए बनी नियमावली पर आधारित थी। उसी नियमावली के अंतर्गत नियम 184 और नियम 193 आते हैं जो आजकल खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मुद्दे को लेकर चर्चा में हैं . नियम 184 के अंतर्गत मत विभाजन का प्रावधान है और नियम 193 में ऐसा नहीं है। नियम 184 के तहत संसद में चर्चा के बाद वोटिंग होती है. अगर सरकार के पास पूरे नंबर ना हों तब भी सरकार तो नहीं गिरती लेकिन उसकी किरकिरी होने का पूरा खतरा रहता है. कोई भी प्रस्ताव नियम 184 या नियम 194 में से किसके तहत होगा ये निश्चय करने का अधिकार सिर्फ लोकसभा के अध्यक्ष को है .

अब रही नेताओं के जलेबी जैसी गोल-गोल टेढ़ी-मेढ़ी माँगें तो उसे भी जान लिया जाए। विपक्ष का मानना है कि ऎसी स्थिति में बहु ब्रांड खुदरा क्षेत्र में 51 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के सरकार के एकतरफा निर्णय के बारे में सदन की भावना जानने का एकमात्र रास्ता यही बचता है कि इस मुद्दे पर चर्चा के बाद सदन में मत विभाजन भी कराया जाए। उनके अनुसार यह आवश्यक हो गया है कि वे अपनी बात उठाएं और इसके लिए मतदान आवश्यक है।

जबकि कांग्रेस ऐसा नहीं चाहती कि कोई वोटिंग हो क्योंकि वह एफडीआई के पक्ष में है। इसिलए बार-बार नियम 193 की वह गुहार लगा रही थी। 


You may have heard in the news that (FDI in multi-brand retail) the government may agree to a discussion under Rule 184, which entails voting. Earlier, the government was asking for Rule. 193. Let us know, what are these rules and where they came from.

The Constituent Assembly (Legislative) Rules of Procedure and Conduct of Business in force immediately before the commencement of the Constitution of India were modified and adopted by the Speaker of Lok Sabha in exercise of the powers conferred on him by article 118(2) of the Constitution and published under the title "Rules of Procedure and Conduct of Business in the House of the People" in the Gazette of India Extraordinary dated the 17th April, 1952.

Those Rules were amended by the Speaker from time to time on the recommendations of the Rules Committee of the House until September, 1954.

Discussions on matter of public interest 184. ** Save in so far as is otherwise provided in the Constitution or in these rules, no discussion of a matter of general public interest shall take place except on a motion made with the consent of the Speaker.**

Notice for raising discussions193. **Any member desirous of raising discussion on a matter of urgent public importance may give notice in writing to the Secretary-General specifying clearly and precisely the matter to be raised:
There shall be no formal motion before the House nor voting. 

That is why the UPA government (which is in favour of FDI in multi-brand retail) is on the side of having a discussion in the Lok Sabha under Rule 193, which does not entail voting.

Tuesday, November 27, 2012

मुद्रास्फीति

अर्थशास्त्र में शब्दों को बहुत भारी भरकम बना दिया जाता है। मुद्रास्फीति को ही ले लीजिये ..लगता है कोई दीवाली के मँहगे पटाखे का नाम हो। इसे सरल रूप में लीजिये। मुद्रास्फीति का अर्थ मँहगाई है ..बस और कुछ नहीं। 

मुझे याद है जब मै ग्रेजुएशन की क्लास अटेंड कर रहा था तो टीचर जी ने मुझसे पूछा की मुद्रा स्फीति क्या है तो मैंने फटाक से जवाब दिया "सर मँहगाई "...वह  चुप हो गए और मैं भी उनके पीले पड़े चेहरे को देखता ही रह गया . शायद वो कुछ और ही सुनना चाह रहे थे।

मुद्रा की क्रय शक्ति में होने वाले ह्रास को मुद्रा स्फीति कहते हैं . अब इसे सरल उदाहरण द्वारा समझे  . यदि आप बाजार में दाल लेने जाते हैं और आपके पास 60 रुपए  हैं। आपका मानना था कि 60 रुपए  में आपको 1 किलो दाल मिल जाएगी  क्यूंकि पिछले महिने आपने 60 रुपए किलो  ही दाल ली था . पर बाजार जाकर पता चला कि दाल 90 रुपए किलो हो गयी है। इसका मतलब आप अब एक किलो दाल नहीं खरीद पायेंगे। मुद्रा की क्रय शक्ति घट गयी। अब तो 30 रुपए  और भी जोड़ने पड़ेंगे दाल लेने के लिए।

मुद्रा की क्रय शक्ति का यही ह्रास मुद्रास्फीति कहलाता है। 



क्या कारण है कि सरकार रोज़-रोज़ मुद्रास्फीति में कमी की घोषणाएं करती रहती है फिर भी ये महंगाई है कि न तो रुकने का नाम ले रही है और न ही कम होने का. क्या ये सरकार की, चुनावों के चलते, आंकडों से बुनी जादूगरी है या विपक्ष सही कह रहा है. आईये इस मुद्रास्फीति के अर्थशाश्त्र को साधारण शब्दों में समझने का प्रयास करें.

वास्तव में, मुद्रास्फीति की दर घटने का अर्थ मँहगाई कम होने से इतना सीधा भी नहीं है (जितना कि हम समझते हैं) क्योंकि यह दर फिछले सप्ताह इत्यादि, की मुद्रास्फीति की दर के सन्दर्भ में होती है न कि महंगाई के सन्दर्भ में. इसलिए पहले ये जान लें कि मुद्रास्फीति की दर और महंगाई मैं सीधा सम्बन्ध नहीं होता है, अप्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है. इसीलिए, यूं भी कहा जा सकता है कि

(1) मुद्रास्फीति की दर में वृद्धि माने मँहगाई में वृद्धि,
(2) मँहगाई में वृद्धि माने मुद्रा स्फीति की दर में वृद्धि
(3) मँहगाई में कमी माने मुद्रा स्फीति की दर में कमी,
(4) लेकिन, मुद्रास्फीति की दर में कमी का मतलब मँहगाई में कमी ज़रूरी नहीं.

उदारहरण के रूप में इसे यूं देखा जा सकता है:-

१.१.२००८ किसी वस्तु की कीमत रु.१००/-
१.२.२००८ यदि मासिक मुद्रास्फीति दर १०% (↑) = ११०/-
१.३.२००८ यदि मासिक मुद्रास्फीति दर १०% (↑) = १२१/-
१.४.२००८ यदि मासिक मुद्रास्फीति दर १५% (↑)= १३९.१५
१.५.२००८ यदि मासिक मुद्रास्फीति दर ०२% (दर में कमी, पिछले महीने तुलना में) = १४१.९३
इसी तरह आगे भी.....

ऊपर के उदाहरण से देखा जा सकता है कि मुद्रास्फीति की दर 15% से घट कर 2% (यानि 13% की कमी) होने पर भी वस्तु की कीमत में रु. 2.78 कि बढोतरी हुई. यानि मँहगाई नहीं घटी. यही अर्थशास्त्र का खेल है जिसे वोटों के खेल में भी बदला जाता रहता है ठीक वैसे ही, जैसे कभी ये कहा गया था कि नदी पर बाँध बनाकर पानी में से बिजली निकाल ली गयी और इस तरह से गरीब किसानों को धोखे से बिना बिजली वाला पानी दिया गया.



Thursday, November 22, 2012

कसाब को फाँसी



पापी, क्रूर और हत्यारे कसाब  को कल फाँसी दे दी गयी। फाँसी तो उसे पहले ही दे देनी चाहिए थी। पर जिस तरह भारतीय संविधान लचीला है, ठीक उसी तरह हमारे नेताओं के मस्तिष्क भी। मेरे अनुसार निर्णय लेने में देरी नहीं करनी चाहिए। जितनी देरी होगी उतनी जटिलताएं भी सामने आएँगी। 

हम यदि स्वयं भी अपने जीवन का उदाहरण लें तो कई बार ऐसा लगता है कि यदि मैं उसी समय एक्शन (कार्रवाई) ले लेता तो आज ये दिन देखना नहीं पड़ता। कहा भी गया है - 

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब।

एक बार की बात है। कर्ण अपने दरबार में बैठे हुए थे। उसी समय उनके दरबार में एक याचक आया। याचक ने अपने हाथ फैलाकर कर्ण से दान मांगा। कर्ण उस समय कुछ काम कर रहे थे। याचक की आवाज सुनते ही कर्ण ने अपना बायां हाथ उठाया और उससे अपने गले का हार निकालकर याचक को दे दिया।

कर्ण के इस कृत्य को एक दरबारी देख रहा था। उसने आपत्ति जताते हुए कहा-‘‘महाराज, अपराध क्षमा हो। आप जानते ही हैं कि बाएं हाथ से दान नहीं दिया जाना चाहिए। जानते हुए भी आपने यह अधर्म क्यों किया?’’ कर्ण ने उत्तर दिया-‘‘याचक ने जब मुझसे दान मांगा, उस समय मेरे आसपास मेरे गले के हार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। उस समय मेरा दायां हाथ व्यस्त था। हो सकता था कि यदि मैं दाएं हाथ को खाली करके दान देने की सोचता तो इतने समय में ही मेरा मन बदल जाता और मैं अपना हार उतारकर उस याचक को नहीं दे पाता। कौन जाने कि पल भर में क्या हो सकता है। इसलिए मैंने अपने बाएं हाथ से ही अपने हार का दान कर दिया।’’आप सोच सकते हैं कि जो व्यक्ति एक-एक पल को इतना महत्त्व देता हो, उसके लिए जीवन में ऊँचाइयाँ छू जाना कोई कठिन नहीं रह जाता।

Wednesday, October 24, 2012

यश चोपड़ा चले गए

यश चोपड़ा चले गए। जाते तो सभी हैं। आप भी जाएंगे और हम भी। पर, यश चोपड़ा जिस तरह से गए, उस तरह उनको नहीं जाना चाहिए था। वे बीमार थे। अस्पताल में बिस्तर पर सोए थे। और सोते सोते ही सदा के लिए सो गए। वे हंसते खेलते जाते..., फिल्में बनाते हुए जाते... या फिर फिल्मों के विकास के लिए सरकार से लड़ते हुए जाते। तो, शायद ज्यादा ठीक लगता।

लेकिन मौत तो मौत होती है। वह जब आ ही जाती है, तो कभी भी, कैसे भी, कहीं से भी किसी को भी अपने साथ लेकर चली जाती है। यश चोपड़ा को भी ले गई। लेकिन दुनिया को बहुत दुखी कर गई। दुखी इसलिए, क्योंकि उनकी फिल्मों में जिंदगी हुआ करती थी। जिंदगी से किस तरह प्यार किया जाता है, यह हुआ करता था। प्यार की परवानगी हुआ करती थी। और पूरे परवान पर चढ़ी जिंदगी की वो जंग भी हुआ करती थी, जिसको जीत कर जिंदगी और बड़ी हो जाया करती थी।

दुनिया असकर लोगों की मौत के बाद उनमें महानता की तलाश करती है। लेकिन यश चोपड़ा जीते जी महान हो गए थे। क्योंकि जिंदगी की असलियत को पूरी ईमानदारी के साथ परदे पर पेश करके आम आदमी के मन से उन्होंने अपना रिश्ता जोड़ा। वे बड़े फिल्म निर्माता थे। बहुत बड़े निर्माता। इतने बड़े कि उनके जीते जी तो उनकी बराबरी कोई नहीं कर सका। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि यश चोपड़ा जितने बड़े फिल्म निर्माता थे, उससे भी ज्यादा बड़े इंसान थे। उनको इंसानियत से मोहब्बत थी। और मोहब्बत को इंसानियत के नजरिए से देखना उनको किसी भी और इंसान से ज्यादा बेहतरीन तरीके से आता था। यही वजह थी कि यश चोपड़ा की फिल्मों में जिंदगी की तलाश नहीं करनी पड़ती थी। बल्कि जिंदगी खुद अपने को उनकी फिल्मों से जोड़ती नजर आती थी।

Wednesday, October 17, 2012

जातिवाद की जकड़न

भले ही मेरी बात कटाक्ष से परिपूर्ण लगे मगर अरविन्द केजरीवाल ने कांग्रेस और भाजपा के दामन को तार तार कर के जो २०१४ के चुनाव में अपनी पार्टी का  डंका बजाने की सोची है उसमें वे  पूरी  तरह विफल हो जायेंगे. उनकी पार्टी नयी नवेली दुल्हन है. अभी उन्हें ससुराल रूपी राजनीति में एडजस्ट करने में बहुत टाइम लगेगा...राजनीति एक दलदल है जिसमें जो डूबने की इच्छा रखता है, उसे अपने पूरे चरित्र को दाँव पर लगाना पड़ता है. भारत  भले ही औद्योगीकरण  की  ओर अग्रसर  है और यहाँ  की भी जनता पिज़्ज़ा-बर्गर खाने  लगी  है मगर अब भी जातिवाद, क्षेत्रवाद और न कितने वाद-विवाद  जनता की नसों में समाये हुए हैं ...ऐसे में २०१४ का चुनाव लड़ने और जीतने का सपना लिए अरविन्द केजरीवाल को भी उन्हीं उम्मीदवार को खड़ा करना पड़ेगा जो प्रदेश के जाति  के हिसाब से फिट बैठते हों , पर केजरीवाल की  बड़ी बड़ी बातें  सुनकर तो यह नहीं लगता कि  वह ऐसा करेंगे...चलिए देखते हैं उनकी हिम्मत रंग लाती भी है या नहीं...

Sunday, October 14, 2012

मलाला, हमें तुमपर नाज़ है.....


मलाला, इतनी कम उम्र में तुमने अब्बू से अच्छी और सच्ची तालीम हासिल की है ..विश्व का हर एक नागरिक तुम्हारी रिकवरी की दुआ कर रहा है. अच्छी शिक्षा इंसान को बेहतर बनाती है....भारत में वेदों, पुरानों,महाकाव्यों में असीम ज्ञान का भण्डार 
है, मगर हमारे पास उन्हें पढने के लिए वक़्त नहीं है...बचपन में स्कूल का टेंशन, कॉलेज में डिग्री का टेंशन और बाद में नौकरी, फिर शादी, फिर बच्चे.... फिर गृहस्थ जीवन के जाल में व्यस्त....

१२-१८ वर्ष इंसान के बहुत महत्वपूर्ण होते हैं ....इस समय दिमाग परिपक्व होने की तयारी में रहता है...इसी उम्र के पडाव पर यदि जीवन का सही मार्गदर्शन हो तो सम्पूर्ण जीवन की धारा ही अलग हो जाती है....हम औरों से अलग सोचने लगते हैं, जीवन का उद्देश्य बदल जाता है.....आज हमारे समाज में मलाला जैसी सोच की जरुरत है, कुछ करने का जज्बा, किसी और के लिए जीने का जज्बा......

अंशुमान तिवारी जी, अर्थशाश्त्र के अद्भुत ज्ञाता

कल ही अंशुमान  तिवारी जी, जो अर्थशाश्त्र के अद्भुत ज्ञाता हैं,  उनका लेख पढ़ रहा था. उन्होंने बहुत खूब कहा - "यदि दुनिया में चिंताओं को नापने का कोई ताजा सूचकांक बनाया जाए तो डगमगाता अमे‍रिका और डूबता यूरोप उसमें सबसे ऊपर नहीं होगा।  दुनिया तो अब थमते चीन को लेकर बेचैन है। ग्‍लो्बल ग्रोथ का यह टर्बोचार्ज्‍ड इंजन धीमा पड़ने लगा है। चीन अब केवल एक देश का ही नाम नही बलिक एक नए किस्‍म की ग्‍लोबल निर्भरता का नाम भी है। दुनिया की दूसरी सबसे बडी अर्थव्‍यवस्‍था की  फैक्ट्रियों में बंद मशीनों को देख कर ब्राजील, अफ्रीका और अमेरिका की खदानों से लेकर ताईवान व कोरिया के इलेक्‍ट्रानिक केंद्रो तक डर की लहर दौडने लगी है। चीन की ग्रोथ में गिरावट दुनिया की सबसे बड़ी बहुआयामी चुनौती है। सुस्‍त पडता चीन  विश्‍व की कई कंपनियों को दीवालिया कर देगा।"


आज उन्हें मैं एक पत्र लिख रहा हूँ :-

सर,
मैं आपके लेखों का नियमित पाठक हूँ. आपके आर्थिक लेखो में मेरी भरपूर जिज्ञासा रहती है. कुछ सवाल  हैं जो आपसे पूछने  हैं.
चीन अपने सस्ते लेबर के लिए जाने जाना वाला देश है. विश्व भर  की कई कम्पनियां चीन आकर अपने उत्पाद का उत्पादन करती हैं, भले ही उसमे लेबल लगा हो मैन्युफैक्चर्ड इन चाइना या मेड इन चाइना. खैर, मुझे बस आपसे ये जानना है कि प्रोडक्ट की विश्वसनीयता को हम कैसे  परखेंगे कि हमारे द्वारा ख़रीदा गया नोकिया मोबाइल सेट या अन्य प्रोडक्ट में क्या अविश्वसनीय और गैर टिकाऊ चीनी कल-पुर्जे मिले रहेते हैं.
आपके उत्तर का इंतज़ार रहेगा
आपका आभारी,
संसार लोचन 


Saturday, October 6, 2012

हिन्दू धर्म को ठेस

अपने बड़बोलेपन से बाज नहीं आने वाले केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने एक बार फिर बवाल खड़ा कर दिया है. मंदिर और टॉयलेट की तुलना ने हिन्दू धर्म को ठेस पहुंचाई  है. सच भी है ,  कुछ बोलने से पहले इंसान को १०० बार सोच लेना चाहिए. भाजपा ने, ही नहीं कांग्रेस ने भी धार्मिक  विश्वास को ठेस पहुँचाने  वाले बयानों से बाज आने की नसीहत उन्हें दे डाली है. इतने बड़े पद पर आसीन जयराम को ऐसे बयानों से बचना चाहिए. धार्मिक ठेस बहुत दुखदायी होती है. 

Thursday, July 19, 2012

मीडिया युद्ध

भले ही आउट लुक मैग्जीन ने  भड़ास निकाल ली  हो ओबामा को अंडर अचीवर साबित  कर के  मगर सच्चाई छुप नहीं सकती जमाने के उसूलों से, के खुशबू आ नहीं सकती कागज़ के फूलों से. हाँ ये सच है की विश्व का दादा  किसी भी देश को अपमानित करने से  नहीं चूकता और ये कहकर बच कर निकलना चाहता है की अपमानित देश इसे सिर्फ क्रिटीसीजम समझें और अपने आप में सुधार लायें. मगर टाइम मैग्जीन के स्टेटमेंट को भूल कर आँख बंद करके यदि ये  सोचा जाए कि  मनमोहन  ने हमें  दिया क्या एक प्रधानमन्त्री के रूप में  तो आभास हो जाएगा कि  इस बन्दे ने देने की  परिभाषा  बदल कर हमें  सच में बहुत कुछ दिया है-  आसमान छूती मेहंगायी, ग़रीबी, आर्थिक मंदी और न जाने क्या क्या! अर्थशास्त्र के महाज्ञानी ने पूरे देश को ऐसी स्थिति में ला कर छोड़ दिया है की साँस लेना भी मुश्किल है। खैर अब उनके निक्कम्मेपन को गिनाने से  कोई फायदा नहीं क्योंकि देश की जनता   इससे पूरी तरह से वाकिफ है . मेरा उद्देश्य तो बस ये कहना  था कि  कुत्तों का काम सिर्फ भौंकना होता है मगर हाथी का काम सुनी को अनसुनी करना और साथ-साथ बिना सुने हुए स्वयं में सुधार लाना  भी होता है। मगर संप्रग सरकार को गीदड़ से हाथी बनने में अभी वक़्त  है। 

Monday, July 16, 2012

सेक्युलर विभाजनकारी मानसिकता

दुनिया इक्कीसवीं सदी में प्रवेश  कर चुकी है, किन्तु मुस्लिम समुदाय का अधिकांश भाग अभी भी मध्यकालीन मान्यताओं की जकडन में है तो इसकी बड़ी जिम्मेदारी सेकुलरिस्टों की है, जो वोट बैंक की राजनीति के कारण  मदरसा तालीम, उर्दू, बहुविवाह , अनियंत्रित प्रजनन आदि मुद्दों पर कट्टरपंथियों का समर्थन करते आये हैं. अभी उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान  मुस्लिम समाज को अपने पाले में करने के लिए सेक्युलर दलों  में होड़ लगी थी. चुनाव से ठीक पूर्व केंद्र सरकार ने पिछड़े वर्ग के लिए निर्धारित २७ प्रतिशत आरक्षण में से अल्पसंख्यकों को ४.५ फीसदी  आरक्षण  देने का निर्णय लिया. चुनाव के बिच में कांग्रेस के एक वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री ने मजहब के आधार पर मुस्लिमों को अलग से  आरक्षण  देने की घोषणा क्या की ,  अन्य छिटपुट दलों ने भी   आरक्षण  मुस्लिम आबादी के अनुपात में करने तक का वादा कर डाला. हाल ही में पंचायती चुनाव को देखते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य के करीब तीस हजार से अधिक इमामों को सम्मान के तौर पर हर महीने २५०० रुपये देने, इमामों को निजी घर बनाने के लए सरकार की ओर से  भूमि देने और भवन निर्माण के लिए आर्थिक सहायता देने के अलावा अल्पसंख्यकों के लिए बीस हज़ार घर बनाने, अल्पसंख्यको के रोजगार के लिए रोजगार बैंक स्थापित करने और उनकी शिक्षा  के लिए मदरसों की स्थापना की घोषणा की थी. समाज के समग्र विकास को ताक़ पर रखकर जब वोट बैंक के लिए इस तरह एक समुदाय पर विशेष कट्टरवादी विचारधारा को पोषित किया जाएगा तो विकृतियाँ ही पैदा होंगी. जिस देश में अल्पसंख्यकों के मजहबी फ़र्ज़ को हज सब्सिडी के नाम पर सरकार पूरा कराती हो उस देश के बह्संख्यकों की भावनाओं के साथ ऐसा खिलवाड़ क्यों? मुस्लिम  लीग के जिन नेताओं ने बटवारें का समर्थन किया वे विभाजन के बाद पाकिस्तान नहीं गए. वे रातोरात कांग्रेस में शामिल हो गए. पार्टी बदलने से उनकी मानसिकता नहीं बदली. वही विभाजनकारी मानसिकता सेक्युलरवाद   के नाम पर पोषित हो रही है, जिसकी तार्किक परिणति  बागपत खाप का तालिबानी फरमान है. 

Sunday, July 15, 2012

'बजट के भीतर' है- शौचालय


 मोंटेक सिंह अहलूवालिया का शौचालय. योजना आयोग भवन के दो शौचालयों को चमकाने पर ३५ लाख रूपये कर्च किये गए हैं. यह वही मोंटेक और उनका आयोग है जो कहता है कि जो २८ रुपये एक दिन में खर्च करता है, वह गरीब नहीं है. देश के गरीबों को लेकर अपराधिक और अमानवीय रवैया अपनाने वाला आयोग अपने शौचालय के सुन्दरीकरण पर जितना चाहे खर्च कर सकता है. सब कुछ 'बजट के भीतर' है.
जैसे ही यह खबर सामने आई कि योजना भवन के शौचालय के सुन्दरीकरण पर ३५ लाख खर्च हुए हैं, मोंटेक सिंह अहलूवालिया पर चौतरफा हमले शुरू हो गए. जैसी कि उम्मीद थी, वे इस खर्च के बचाव में आये और पूरी तरह से यह स्पष्ट कर दिया कि देश की योजना बनाने वाला यह व्यक्ति देश को लेकर कितना असंवेदनशील है.
मोंटेक ने न केवल मीडिया के सामने धन के आपराधिक दुरुपयोग को उचित ठहराया बल्कि इसकी आलोचना करने के लिए मीडिया की चुटकी भी ली. फिजूलखर्च का विरोध उनके लिए दुर्भाग्यपूर्ण है और ३५ लाख ख़र्च करना जरूरत. यह योजना आयोग के उपाध्यक्ष की बेशर्मी और असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा है. उनके इस काम की चारो तरफ से निंदा हुई है लेकिन उसका क्या लाभ. मोंटेक को तो इस बात का अहसास भी नहीं है कि एक गरीब देश में ऐसी फिजूलखर्ची उचित नहीं है. बल्कि उलटे वह इसे उचित ही ठहरा रहे हैं. कांग्रेस ने भी उनका बचाव करने से मन कर दिया है और इस बात को रखांकित किया है कि सार्वजनिक धन का ख़र्च इस तरह से उचित नहीं है.


मगर कांग्रेस की सीख का मोंटेक सिंह अहलूवालिया पर क्या फर्क पड़ता है. वे प्रधानमंत्री के आदमी हैं और अमेरिका में उनके आका उन्हें भारत में जमाये रखना चाहते हैं. चाहे वे अपने शौचालय के लिए कितना भी धन क्यूँ न ख़र्च करें. वे कांग्रेस के नियंत्रण में नहीं हैं. वे वित्त मंत्री बन रहे थे, कांग्रेस ने रोक दिया, कांग्रेस बस इतना ही कर सकती थी. आने वाले चुनाओं में अकेले मोंटेक कांग्रेस पर भरी पड़ेंगे, और रुपये वाली करतूत कांग्रेस के खिलाफ एक बड़ा मुद्दा बनेगी.
अर्से से वे मनमोहन सिंह और अमेरिका के प्रिय है और मनमोहन तथा उनके आका अमेरिका ने मोटेंक को भारतीय योजना आयोग का उपाध्यक्ष बना रखा है. आज भी मोटेंक बिना नागा किये अमेरिका जाते हैं. महीने में एक दो बार वे अमेरिका में ही पाये जाते हैं और न जाने क्या करके लौट आते हैं. फिर कांग्रेस में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह उल जुलूल हरकतें करनेवाले मोंटेक का कान पकड़कर उन्हें योजना आयोग का दरवाजा दिखा दे. न जाने कब से वे अपने मानसिक सोच (शौच) से पूरे देश को गंदा किये जा रहे हैं और हम हैं कि उनकी हर गंदगी अपने सिर माथे धरे घूम रहे हैं. 


वैसे, राजनीतिक दल भले ही मोंटेक की आलोचना कर रहे हैं लेकिन इस देश का आम आदमी के मन में एक सवाल यह भी आ रहा है कि काश! पूरा देश मोंटेक का शौचालय हो जाता. आखिर में एक सवाल तो ज्यों का त्यों है कि अपने शरीर का मैला त्यागने के लिए मोंटेक ने ३५ लाख ख़र्च किया है, मन का मैल दूर करने के लिए कितना ख़र्च करेंगे?

उभरता बिहार


बिहार से दूर दिल्ली और मुंबई में बैठे लोग बिहार के बारे में जैसा सोचने लगे हैं उस पर भी सवाल उठाये जाते हैं. कहा जाता है कि बिहार में वैसा कुछ बड़ा बदलाव नहीं हो रहा है जिसके लिए किसी नीतीश सरकार की तारीफ की जाए. ऐसा कहनेवाले बिहार से ज्यादा दूर नहीं बल्कि पटना में बैठे मिल जाएंगे जो मानते हैं कि बिहार में नीतीश कुमार की तानाशाही के कारण उनका जयगान हो रहा है. लेकिन कुछ तथ्य ऐसे हैं जिन्हें जानकर कोई भी आश्चर्य से बोल पड़ेगा कि क्या यह बिहार में हो रहा है? उससे भी बड़ा आश्चर्य यह कि यह जो हो रहा है उसमें बिहार सरकार या एनके सिंह की आंकड़ेबाजी बिल्कुल शामिल नहीं है. यह समाज और गैरसरकारी संस्थानों का मिलाजुला प्रयास है जो बिहार को बिजली के मामले बिल्कुल नये धरातल पर खड़ा कर रहा है. बिहारी समाज अपने दम पर उर्जा आपूर्ति की दिशा में आगे बढ़ रहा है.
आपको यह जरूर पता होगा कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बीते महीने अप्रैल में एक 600 मेगावाट सोलर बिजलीघर का लोकार्पण किया लेकिन क्या आपको पता है देश में सबसे ज्यादा सोलर पॉवर का इस्तेमाल कहां किया जाता है? वह गुजरात नहीं बल्कि बिहार है. हां, बिहार का रास्ता गुजरात से थोड़ा अलग है. यहां अक्षय उर्जा के जितने प्रयोग किये जा रहे हैं वे सब कुटीर उद्योग के रूप में हैं. सौर उर्जा भी बिहार में बिजली बनाने का आज सबसे बड़ा कुटीर उद्योग हो गया है और सौर उपकरण बेचनेवालों के लिए सबसे बड़ा बाजार भी. यह स्थिति अनायास नहीं है.
बिहार में प्रति व्यक्ति बिजली की उपलब्धता देश में सबसे कम है. यहां जब हम प्रति व्यक्ति बिजली की उपलब्धता की बात करते हैं तो उसका मतलब होता है वह बिजली जिसे सरकार ग्रिड प्रणाली से लोगों को उपलब्ध कराती है. इस व्यवस्था से मिलनेवाली बिजली मुख्यरूप से थर्मल पॉवर या फिर हाइड्रो पावर की बड़ी परियोजनाओं से प्राप्त की जाती है. सरकार द्वारा दी जानेवाली इस बिजली की आपूर्ति बहुत कम है और बर्बादी भी बहुत ज्यादा है. जो सरकारी आंकड़े हैं उनके अनुसार बिहार में 82 प्रतिशत लोग इस बिजली आपूर्ति से वंचित हैं. ग्रिड प्रणाली से जो बिजली लोगों तक पहुंचाई जाती है उसमें भी करीब 38 प्रतिशत रास्ते में ही नष्ट हो जाती है और जरूरी समय को जोड़ें तो बिजली केवल 28 प्रतिशत लोगों की जरूरतों को पूरा कर पाती है. इसलिए यहां हम उस उर्जा क्रांति की बात नहीं कर रहे हैं जो सरकार ग्रिड प्रणाली से लोगों तक पहुंचाती है.
यहां हम उस उर्जा क्रांति के बारे में बात कर रहे हैं जिसका भंडार अक्षय है. अक्षय उर्जा का यह भंडार कई स्रोतों में बिखरा पड़ा है और इसका उत्पादन भी बहुत केन्द्रित न होकर विकेन्द्रित है. अगर आज का बिहार महज 546 मेगावाट बिजली का उत्पादन करता है तो अक्षय उर्जा का उसके पास 18 हजार मेगावाट की क्षमता है जिसमें सबसे प्रमुख है सौर उर्जा. इसी सौर उर्जा का दोहन करने के लिए न केवल सरकार प्रयास कर रही है बल्कि समाज का बड़ा हिस्सा अपने घरों में रोशनी लाने के लिए सौर उर्जा का इस्तेमाल कर रहा है. इस काम में सरकार की सीधी मदद न भी हो तो नियम कानून के रूप में वह लोगों के आड़े नहीं आ रही है और वैकल्पिक उर्जा के प्रयोगों को बढ़ावा दे रही है. इन्हीं संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए बिहार सरकार ने 2011 में जिस नई उर्जा नीति की घोषणा की है उसमें अक्षय उर्जा की ओर विशेष ध्यान दिया है.
अक्षय उर्जा की इन्हीं संभावनाओं को देखते हुए गैर सरकारी संस्था ने 15 मई को एक दिन का एक अंतरराष्ट्रीय कांफ्रेस का आयोजन किया था जिसमें देश विदेश के विशेषज्ञ इकट्ठा हुए थे. इस कांफ्रेंस का उद्घाटन बिहार के उर्जा मंत्री बिजेन्द्र प्रसाद यादव ने कहा कि आजादी के बाद बिहार ने बिजली उत्पादन पर बहुत ध्यान नहीं दिया था लेकिन अब हम हर स्तर पर काम कर रहे हैं. उन्होंने उम्मीद जाहिर की कि आगामी चार से छह सालों में बिहार अपनी जरूरत की पूरी बिजली खुद पैदा करेगा जिसमें अक्षय उर्जा का बड़ा योगदान होगा. संभवत: ग्रीनपीस भी बिहार में अक्षय उर्जा की अकूत संभावना देखता है शायद इसीलिए अक्षय उर्जा के लिए वह बिहार में पूरी तरह से सक्रिय हो गया है. पिछले दो साल से उर्जा को लेकर बिहार ग्रीनपीस के लिए भी प्रयोगभूमि बन गया है. ग्रीनपीस के तहत बिहार को उर्जावान करने के काम में लगे रमापति कुमार कहते हैं कि अब वक्त आ गया है कि बिहार उर्जा को लेकर अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाए. अगर बिहार सरकार ठोस नीति के जरिए अक्षय उर्जा को बढ़ावा देती है तो वह दिन दूर नहीं जब बिहार उर्जा के मामले में पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो जाएगा.
बिहार में सरकार से परे जनता और गैरसरकारी संस्थाओं के स्तर पर जो छोटे छोटे प्रयोग हो रहे हैं उन्हें देखने के बाद रमापति कुमार की बात में दम नजर आता है.

Saturday, July 14, 2012

खोद खोदकर ख़बर ख़बर



हमारे चारों ओर चौबीस घंटे खबरें तैर रही हैं। सैंकड़ों न्यूज चैनल हमें चौबीस घंटे खबरदार करते और रखते हैं। सबसे पहले, सबसे आगे की दौड़ में इलैक्ट्रानिक मीडिया दिन-रात एक किये रहता है। देश-दुनिया से लेकर गली-मोहल्ले तक की पल-पल की खबर प्रसारित होती रहती हैं। देश-दुनिया में घटने वाली घटनाओं की सूचना और जानकारी होना जरूरी है लेकिन जिस तरह चौबीस घंटे मीडिया खोद-खोदकर खबरें निकालने और उनका विषलेषण करने में जुटा रहता है उसको देखते हुए स्वाभाविक तौर पर यह सवाल जेहन में उठता है कि जितनी खबरें चौबीस घंटे परोसी जा रही है क्या उतनी खबरों की जरूरत देश के आम आदमी को है भी? कहीं ऐसा तो नहीं है कि खबरें खोदकर ये मीडिया कारोबारी उसी में आम आदमी की कब्र बना देना चाहते हैं?
व्यवसायिक प्रतिद्वंदता और प्रतिस्पर्धा की दौड़ में न्यूज चैनल आज न्यूज के नाम पर जो कुछ देश की जनता के सामने परोस रहे हैं उसमें न्यूज के सिवाय और सब कुछ है अर्थात न्यूज चैनलों में न्यूज गायब है।
सच्चाई यह है कि न्यूज चैनलों का हालत उस पुरानी और खस्तहाल साइकिल की तरह हो गयी है जिसमें घंटी की सिवाए हर पुर्जा आवाज करता है। न्यूज चैनल न्यूज के नाम पर टोना-टोटका, यू-टयूब के वीडियो, अपराध, रोमांस, सास-बहू के चटपटे किस्स,और स्टंट को बड़ी शान से परास रहे हैं।  न्यूज चैनलों की  बाढ़ में ऐसे न्यूज चैनलों की संख्या अधिक है जो न्यूज के अलावा सब कुछ परोसते हैं। असल में इन न्यूज चैनलों को न्यूज और पत्रकारिता के नाम पर कलंक और काला धब्बा कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
पिछले एक दशक में देश में न्यूज चैनलों की एक बाढ़ सी आई हुई है। चौबीस घंटे सैंकड़ों न्यूज चैनल समाचार प्रसारित करते रहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, राज्य, जिले से लेकर गली-मोहल्ले और चौक-चौराहों की न्यूज का प्रसारण कहीं न कहीं यह सोचने को विवश करता है कि आखिरकर हमें इतनी खबरों की जरूरत है भी या नहीं। देश की जनता को जागृत करने और जनहित से जुड़े मुद्दों को उबारने और मंच प्रदान करने, जनजागरण एवं जन आंदोलन खड़ा करने और देश को नयी दिशा दिखाने में मीडिया की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। बावजूद इसके बाजारवाद की मार झेल रहा मीडिया बाजार में टिके रहने के लिए जो हथकंडे अपना रहा है उससे लगता है प्रेस अपनी मूल राह से भटक गया है। टीआरपी की चाहत में अधिक से अधिक समय तक दर्शकों को अपने चैनल के साथ जोडऩे के लिए न्यूज चैनल और मीडिया हाउस विशुद्घ रूप से कारपोरेट कल्चर में डूब चुके हैं।
अपने आस-पास की खबरें जानने और समझने की जिज्ञासा स्वाभाविक है।  लेकिन जिस गति से न्यूज चैनलों की संख्या देश में बढ़ी है उससे दोगुनी गति से न्यूज सेंस की कमी भी दिखाई दे रही है। चौबीस घंटे न्यूज और हर दस मिनट में ब्रेकिंग न्यूज देना न्यूज चैनलों की व्यवसायिक मजबूरी है, ऐसे में दर्शकों का बांधे रखने और टीआरपी के चक्कर में खबर की गुणवत्ता की बजाए न्यूज की संख्या, मिर्च-मसाले और चटपटेपन पर अधिक ध्यान दिया जाता है। ब्रेकिंग न्यूज आते ही संवाददाता विशलेषण और खबर का पोस्टमार्टम शुरू कर देता है। स्टूडियों में बैठे न्यूज एंकर ऐसे अटपटे और बचकाने सवाल फील्ड में तैनात रिपोर्टर से पूछते हैं कि रिपोर्टर और दर्शकों दोनों का दिमाग एक बार घूम जाए। अधिकतर चैनल बेमतलब और गैर जरूरी मुद्दों पर बहस और जोरदार चर्चा कर समय बिताते हैं। सबसे पहले और सबसे तेज के चक्कर में रिपोर्टर सुनी-सुनाई, साथी पत्रकारों या फिर पुलिस-प्रशासन से प्राप्त अधकचरी और अधपकी कहानी चीख-चीखकर दर्शकों को बताते हैं।
आज न्यूज चैनल दर्शकों और पाठकों के समक्ष जो कुछ परोस रहा है उस अधकचरी जानकारी को किसी भी कीमत पर न्यूज नहीं कहा जा सकता है। न्यूज का अर्थ सनसनी या उतेजना फैलाना कदापि नहीं हो सकता लेकिन आज न्यूज चैनल अपना कर्तव्य और जिम्मेदारी को भूलाकर मार्केट में जमे रहने के लिए सनसनी फैलाने को ही अपना धर्म और कर्म समझने लगे हैं, और न्यूज का मर्म समझने की शक्ति का उतरोत्तर ह्रास हो रहा है। ऐस नहीं है कि सारा तालाब ही गंदा है, लेकिन चंद गंभीर और सकारात्मक प्रयास कोने में अलग-थलग पड़े दिखाई देते हैं।
दर्शकों तक सबसे पहले न्यूज पहुंचाने की प्रवृत्ति ने न्यूज का कबाड़ा तो किया ही है वहीं मीडिया की विश्वसनीयता और प्रमाणकिता को भीह खतरे में डाला है। हमारे चारों ओर घटने वाली घटनाओं की जानकारी हमें होनी चाहिए लेकिन ऐसा लग रहा है कि अब मीडिया न्यूज की लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर रहा है। मीडिया घराने दूसरे बिजनेस घरानों की तर्ज पर ग्राहकों को पटाने और अपना माल खरीदने के लिए गैर-जरूरी और निजता की दीवार को तोडक़र मिर्च-मसाला लगाकर खबरें परोसने में परहेज नहीं कर रहे हैं। अगर ईमानदारी से आकलन किया जाए तो किसी भी न्यूज चैनल पर विशुद्घ न्यूज कंटेट दो-ढाई घंटे से अधिक प्रसारित नहीं किया जाता है।
आज से दो-तीन दशक पूर्व तक जिस आम आदमी के जीवन को छूने वाले और जनहित के मुद्दों के अलावा दूसरी खबरें प्रसारित-प्रकाशित करने में मीडिया परहेज बरतता था। आज मीडिया का इस बात का बड़ा गुमान है कि उसने देश को दशा और दिशा प्रदान की है। लेकिन मीडिया की अधकचरी खबरों और चीख-चीख कर न्यूज पेश करने और खोद-खोद कर खबरें देने की प्रवृत्ति ने कितनी जिंदगियों को तबाह किया है या नरक में धकेला है इस तथ्य को जानने की जहमत किसी ने नहीं की है। जब कोई संवाददाता लाइव रिर्पोटिंग के दौरान नाटकीय अंदाज में किसी लडक़ी, औरत या किसी अन्य संवेदनशील मसले पर अपना ज्ञान बखार रहा होता है, उस समय अधिकतर मामलों में उसके पास तथ्यात्मक जानकारी कम और बयानबाजी एवं सुनी-सुनाई किस्से और कहानी का हिस्सा ज्यादा होता है, लेकिन जब चौबीस घंटे खबरें प्रसारित करना मजबूरी हो तो नैतिकता, धर्म, और मर्यादा का क्या हश्र होगा इसे बेहतर समझा जा सकता है।
यह सच्चाई है कि प्रजातंत्र को मजबूत करने और आम आदमी की आवाज बनकर मीडिया ने बड़ा काम किया है, बावजूद इसके सुधार निरंतर प्रक्रिया है। आज मीडिया को भी अपने बदलते स्वरूप और व्यवहार पर चिंतन करने की जरूरत है। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा ख्ंाभा कहा जाता है जिसके कारण उसकी भूमिका और भी बढ़ जाती है कि वो अपनी जिम्मेदारी को और अधिक बेहतर तरीके से समझे और जनहित से जुड़े मुद्दों को प्रभावी तरीके से उठाए और न्यूज के नाम गैर-जरूरी वस्तुएं परोसने से परहेेज करे तो न्यूज और मीडिया दोनों के लिए बेहतर होगा।

भ्रष्ट राजा और बेशर्म प्रजा

१५ माह बाद जमानत पर तिहाड़ से बाहर आए पूर्व दूरसंचार मंत्री एवं द्रमुक सांसद ए.राजा ने जिस बेपरवाही से अपने समर्थकों की ओर चुम्बन उछाला, वह उनकी सनक तथा "जो किया ठीक किया" की मानसिकता को दर्शाता है| २जी स्पेक्ट्रम घोटाले में २०० करोड़ की रिश्वत लेने के आरोपी राजा को दिल्ली की एक अदालत ने सिर्फ इसलिए जमानत दी क्यूंकि इस मामले से जुड़े १३ अन्य अभियुक्तों को पूर्व में जमानत मिल चुकी है| इस मौके पर द्रमुक कार्यकर्ताओं ने ऐसे खुशियाँ मनाई मानो राजा किसी जंग को जीत कर लौट रहे हों| राजा तो राजा; उनकी ख़ास "प्रजा" की आँखों में देश के साथ गद्दारी करने के लिए शर्म न नामों निशान तक नहीं था|

हालांकि अदालत ने राजा को सशर्त जमानत दी है किन्तु सबसे बड़ा सवाल यह है कि अब २जी स्पेक्ट्रम घोटाले से जुड़ी जांच का क्या होगा? क्या अब जांच की निष्पक्ष उम्मीद की जानी चाहिए? क्या राजा अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर मुद्दे को कमजोर नहीं करेंगे? क्या जमानत मिल जाने से राजा पर लगे तमाम दाग स्वतः धुल जायेंगे? 


कैग रिपोर्ट के अनुसार, राजा के कार्यकाल में हुए २जी स्पेक्ट्रम आवंटन से सरकारी खजाने को १.७५ लाख करोड़ रुपये का चूना लगा था, क्या जनता का वह धन जो विकास कार्यों में खर्च होना था, राजा के तिहाड़ से बाहर आने से उसकी भरपाई होगी? और भी न जाने कितने सवाल हैं जो अब तक अनुत्तरीय हैं| राजा के तिहाड़ से बाहर आने के सवाल पर मनमोहन सिंह अपने चिर-परिचित अंदाज में चुप्पी साध गए तो तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललिता का मानना है कि अब २जी स्पेक्ट्रम घोटाले को कमजोर करने के प्रयास शुरू होंगे। वहीं स्वामी ने राजा की जान को खतरा बताते हुए उनकी सुरक्षा की मांग की है। कुल मिलाकर अब इस मामले का लगभग पटाक्षेप हो चुका है बस पर्दा गिरना बाकी है। और जनता तो वैसे भी ३जी-४जी के जमाने में २जी को लगभग भूल ही चुकी है। हाँ, इस मामले को लेकर राजनीति ज़रूर चलती रहेगी तथा २०१४ में भी इस मामले को भुनाने का प्रयास किया जाएगा।


दरअसल २जी स्पेक्ट्रम घोटाले के तार कहीं और ही इशारा करते हैं। राजा तो इस घोटाले का मोहरा मात्र थे। प्रधानमंत्री से लेकर वित्तमंत्री तक, सभी जानते थे की घोटाले की शुरुआत हो चुकी है किन्तु किसी ने अपनी जुबान नहीं खोली। शायद बताने की जरुरत भी नहीं कि इन सभी की बोलती किसके किए बंद होती है? देश के १३ सर्कलों के लिए ३४० मिलियन डॉलर में लाइसेंस खरीदने वाली स्वान टेलीकॉम में शीर्ष परिवार के दामाद की हिस्सेदारी की बात भी उठती रही है। लिहाजा इस पूरे मामले की गंभीरता से जांच होना चाहिए थी किन्तु सीबीआई ने भी मामले को दबाने की भरपूर कोशिश की। क्या यह संभव है कि जब सभी तथ्य एवं सबूत राजा के खिलाफ जा रहे थे तब सीबीआई ने राजा के खिलाफ क्यूँ मजबूत केस नहीं बनाया? क्यूँ सीबीआई मीडिया को देखते ही राजा की जमानत का नकली विरोध करने लगी? क्यूँ सीबीआई ने राजा द्वारा उपलब्ध कराए गए सबूतों को आधार बनाकर भी उनके औचित्य पर ही सवालिया निशान लगाए? क्यूँ शीर्ष न्यायालय तथा कैग की फटकार के बाद ही सीबीआई इस मामले में कुछ करने का नाटक करती रही? 


खैर राजा के तिहाड़ से बाहर आने के बाद जनता को भी समझ लेना चाहिए कि २जी स्पेक्ट्रम मामला भी बोफोर्स मामले की तरह रहस्यात्मक रूप लेकर साल दो साल में राजनीति की वजह बन जाएगा। हालिया परिस्थितियों में निष्पक्ष जांच की उम्मीद बेमानी है अतः देश के सबसे बड़े घोटाले को नियति मान अपनी बददिमागी हालत को न कोसें बल्कि इसे एक सबक की तरह लें ताकि चुनाव रुपी हवन में इन सभी सत्ता-लोलुप ताकतों का होम कर एक साफ़ सुथरी सरकार का सपना साकार हो सके। हाँ, इस पूरे मामले में सबसे बड़ा दुःख यही है कि कहीं से भी, देश के किसी भी हिस्से से सरकार और राजा के विरुद्ध असहमति एवं विरोध के स्वर नहीं सुनाई पड़े हैं। निष्क्रिय हो चुके समाज को देखकर लगता है कि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ इससे भी अधिक दब्बू किस्म की होंगी जिन्हें अन्याय का प्रतिरोध करना ही नहीं आता होगा। आने वाले समय में न जाने कितने "राजाओं" से देश की जनता की खून पसीने की कमाई का दुरुपयोग होता रहेगा और हम चुपचाप सब सहते रहेंगे? क्या इसी लोकतंत्र की ताकत पर गुमान है हमें? ज़रा सोचिए।