भले ही मेरी बात कटाक्ष से परिपूर्ण लगे मगर अरविन्द केजरीवाल ने कांग्रेस
और भाजपा के दामन को तार तार कर के जो २०१४ के चुनाव में अपनी पार्टी का
डंका बजाने की सोची है उसमें वे पूरी तरह विफल हो जायेंगे. उनकी पार्टी नयी नवेली
दुल्हन है. अभी उन्हें ससुराल रूपी राजनीति में एडजस्ट करने में बहुत टाइम
लगेगा...राजनीति एक दलदल है जिसमें जो डूबने की इच्छा रखता है, उसे अपने
पूरे चरित्र को दाँव पर लगाना पड़ता है. भारत भले ही औद्योगीकरण की ओर
अग्रसर है और यहाँ की भी जनता पिज़्ज़ा-बर्गर खाने
लगी है मगर अब भी जातिवाद, क्षेत्रवाद और न कितने वाद-विवाद जनता की नसों
में समाये हुए हैं ...ऐसे में २०१४ का चुनाव लड़ने और जीतने का सपना लिए
अरविन्द केजरीवाल को भी उन्हीं उम्मीदवार को खड़ा करना पड़ेगा जो प्रदेश के जाति के हिसाब से फिट बैठते हों , पर केजरीवाल की बड़ी बड़ी बातें सुनकर तो
यह नहीं लगता कि वह ऐसा करेंगे...चलिए देखते हैं उनकी हिम्मत रंग लाती भी
है या नहीं...
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