यश चोपड़ा चले गए। जाते तो सभी हैं। आप भी जाएंगे और हम भी। पर, यश चोपड़ा जिस तरह से गए, उस तरह उनको नहीं जाना चाहिए था। वे बीमार थे। अस्पताल में बिस्तर पर सोए थे। और सोते सोते ही सदा के लिए सो गए। वे हंसते खेलते जाते..., फिल्में बनाते हुए जाते... या फिर फिल्मों के विकास के लिए सरकार से लड़ते हुए जाते। तो, शायद ज्यादा ठीक लगता।
लेकिन मौत तो मौत होती है। वह जब आ ही जाती है, तो कभी भी, कैसे भी, कहीं से भी किसी को भी अपने साथ लेकर चली जाती है। यश चोपड़ा को भी ले गई। लेकिन दुनिया को बहुत दुखी कर गई। दुखी इसलिए, क्योंकि उनकी फिल्मों में जिंदगी हुआ करती थी। जिंदगी से किस तरह प्यार किया जाता है, यह हुआ करता था। प्यार की परवानगी हुआ करती थी। और पूरे परवान पर चढ़ी जिंदगी की वो जंग भी हुआ करती थी, जिसको जीत कर जिंदगी और बड़ी हो जाया करती थी।
दुनिया असकर लोगों की मौत के बाद उनमें महानता की तलाश करती है। लेकिन यश चोपड़ा जीते जी महान हो गए थे। क्योंकि जिंदगी की असलियत को पूरी ईमानदारी के साथ परदे पर पेश करके आम आदमी के मन से उन्होंने अपना रिश्ता जोड़ा। वे बड़े फिल्म निर्माता थे। बहुत बड़े निर्माता। इतने बड़े कि उनके जीते जी तो उनकी बराबरी कोई नहीं कर सका। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि यश चोपड़ा जितने बड़े फिल्म निर्माता थे, उससे भी ज्यादा बड़े इंसान थे। उनको इंसानियत से मोहब्बत थी। और मोहब्बत को इंसानियत के नजरिए से देखना उनको किसी भी और इंसान से ज्यादा बेहतरीन तरीके से आता था। यही वजह थी कि यश चोपड़ा की फिल्मों में जिंदगी की तलाश नहीं करनी पड़ती थी। बल्कि जिंदगी खुद अपने को उनकी फिल्मों से जोड़ती नजर आती थी।