भले ही आउट लुक मैग्जीन ने भड़ास निकाल ली हो ओबामा को अंडर अचीवर साबित कर के मगर सच्चाई छुप नहीं सकती जमाने के उसूलों से, के खुशबू आ नहीं सकती कागज़ के फूलों से. हाँ ये सच है की विश्व का दादा किसी भी देश को अपमानित करने से नहीं चूकता और ये कहकर बच कर निकलना चाहता है की अपमानित देश इसे सिर्फ क्रिटीसीजम समझें और अपने आप में सुधार लायें. मगर टाइम मैग्जीन के स्टेटमेंट को भूल कर आँख बंद करके यदि ये सोचा जाए कि मनमोहन ने हमें दिया क्या एक प्रधानमन्त्री के रूप में तो आभास हो जाएगा कि इस बन्दे ने देने की परिभाषा बदल कर हमें सच में बहुत कुछ दिया है- आसमान छूती मेहंगायी, ग़रीबी, आर्थिक मंदी और न जाने क्या क्या! अर्थशास्त्र के महाज्ञानी ने पूरे देश को ऐसी स्थिति में ला कर छोड़ दिया है की साँस लेना भी मुश्किल है। खैर अब उनके निक्कम्मेपन को गिनाने से कोई फायदा नहीं क्योंकि देश की जनता इससे पूरी तरह से वाकिफ है . मेरा उद्देश्य तो बस ये कहना था कि कुत्तों का काम सिर्फ भौंकना होता है मगर हाथी का काम सुनी को अनसुनी करना और साथ-साथ बिना सुने हुए स्वयं में सुधार लाना भी होता है। मगर संप्रग सरकार को गीदड़ से हाथी बनने में अभी वक़्त है।
Thursday, July 19, 2012
Monday, July 16, 2012
सेक्युलर विभाजनकारी मानसिकता
दुनिया इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुकी है, किन्तु मुस्लिम समुदाय का अधिकांश भाग अभी भी मध्यकालीन मान्यताओं की जकडन में है तो इसकी बड़ी जिम्मेदारी सेकुलरिस्टों की है, जो वोट बैंक की राजनीति के कारण मदरसा तालीम, उर्दू, बहुविवाह , अनियंत्रित प्रजनन आदि मुद्दों पर कट्टरपंथियों का समर्थन करते आये हैं. अभी उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान मुस्लिम समाज को अपने पाले में करने के लिए सेक्युलर दलों में होड़ लगी थी. चुनाव से ठीक पूर्व केंद्र सरकार ने पिछड़े वर्ग के लिए निर्धारित २७ प्रतिशत आरक्षण में से अल्पसंख्यकों को ४.५ फीसदी आरक्षण देने का निर्णय लिया. चुनाव के बिच में कांग्रेस के एक वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री ने मजहब के आधार पर मुस्लिमों को अलग से आरक्षण देने की घोषणा क्या की , अन्य छिटपुट दलों ने भी आरक्षण मुस्लिम आबादी के अनुपात में करने तक का वादा कर डाला. हाल ही में पंचायती चुनाव को देखते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य के करीब तीस हजार से अधिक इमामों को सम्मान के तौर पर हर महीने २५०० रुपये देने, इमामों को निजी घर बनाने के लए सरकार की ओर से भूमि देने और भवन निर्माण के लिए आर्थिक सहायता देने के अलावा अल्पसंख्यकों के लिए बीस हज़ार घर बनाने, अल्पसंख्यको के रोजगार के लिए रोजगार बैंक स्थापित करने और उनकी शिक्षा के लिए मदरसों की स्थापना की घोषणा की थी. समाज के समग्र विकास को ताक़ पर रखकर जब वोट बैंक के लिए इस तरह एक समुदाय पर विशेष कट्टरवादी विचारधारा को पोषित किया जाएगा तो विकृतियाँ ही पैदा होंगी. जिस देश में अल्पसंख्यकों के मजहबी फ़र्ज़ को हज सब्सिडी के नाम पर सरकार पूरा कराती हो उस देश के बह्संख्यकों की भावनाओं के साथ ऐसा खिलवाड़ क्यों? मुस्लिम लीग के जिन नेताओं ने बटवारें का समर्थन किया वे विभाजन के बाद पाकिस्तान नहीं गए. वे रातोरात कांग्रेस में शामिल हो गए. पार्टी बदलने से उनकी मानसिकता नहीं बदली. वही विभाजनकारी मानसिकता सेक्युलरवाद के नाम पर पोषित हो रही है, जिसकी तार्किक परिणति बागपत खाप का तालिबानी फरमान है.
Sunday, July 15, 2012
'बजट के भीतर' है- शौचालय
मोंटेक सिंह अहलूवालिया का शौचालय. योजना आयोग भवन के दो शौचालयों को चमकाने पर ३५ लाख रूपये कर्च किये गए हैं. यह वही मोंटेक और उनका आयोग है जो कहता है कि जो २८ रुपये एक दिन में खर्च करता है, वह गरीब नहीं है. देश के गरीबों को लेकर अपराधिक और अमानवीय रवैया अपनाने वाला आयोग अपने शौचालय के सुन्दरीकरण पर जितना चाहे खर्च कर सकता है. सब कुछ 'बजट के भीतर' है.
जैसे ही यह खबर सामने आई कि योजना भवन के शौचालय के सुन्दरीकरण पर ३५ लाख खर्च हुए हैं, मोंटेक सिंह अहलूवालिया पर चौतरफा हमले शुरू हो गए. जैसी कि उम्मीद थी, वे इस खर्च के बचाव में आये और पूरी तरह से यह स्पष्ट कर दिया कि देश की योजना बनाने वाला यह व्यक्ति देश को लेकर कितना असंवेदनशील है.
मोंटेक ने न केवल मीडिया के सामने धन के आपराधिक दुरुपयोग को उचित ठहराया बल्कि इसकी आलोचना करने के लिए मीडिया की चुटकी भी ली. फिजूलखर्च का विरोध उनके लिए दुर्भाग्यपूर्ण है और ३५ लाख ख़र्च करना जरूरत. यह योजना आयोग के उपाध्यक्ष की बेशर्मी और असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा है. उनके इस काम की चारो तरफ से निंदा हुई है लेकिन उसका क्या लाभ. मोंटेक को तो इस बात का अहसास भी नहीं है कि एक गरीब देश में ऐसी फिजूलखर्ची उचित नहीं है. बल्कि उलटे वह इसे उचित ही ठहरा रहे हैं. कांग्रेस ने भी उनका बचाव करने से मन कर दिया है और इस बात को रखांकित किया है कि सार्वजनिक धन का ख़र्च इस तरह से उचित नहीं है.
मगर कांग्रेस की सीख का मोंटेक सिंह अहलूवालिया पर क्या फर्क पड़ता है. वे प्रधानमंत्री के आदमी हैं और अमेरिका में उनके आका उन्हें भारत में जमाये रखना चाहते हैं. चाहे वे अपने शौचालय के लिए कितना भी धन क्यूँ न ख़र्च करें. वे कांग्रेस के नियंत्रण में नहीं हैं. वे वित्त मंत्री बन रहे थे, कांग्रेस ने रोक दिया, कांग्रेस बस इतना ही कर सकती थी. आने वाले चुनाओं में अकेले मोंटेक कांग्रेस पर भरी पड़ेंगे, और रुपये वाली करतूत कांग्रेस के खिलाफ एक बड़ा मुद्दा बनेगी.
अर्से से वे मनमोहन सिंह और अमेरिका के प्रिय है और मनमोहन तथा उनके आका अमेरिका ने मोटेंक को भारतीय योजना आयोग का उपाध्यक्ष बना रखा है. आज भी मोटेंक बिना नागा किये अमेरिका जाते हैं. महीने में एक दो बार वे अमेरिका में ही पाये जाते हैं और न जाने क्या करके लौट आते हैं. फिर कांग्रेस में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह उल जुलूल हरकतें करनेवाले मोंटेक का कान पकड़कर उन्हें योजना आयोग का दरवाजा दिखा दे. न जाने कब से वे अपने मानसिक सोच (शौच) से पूरे देश को गंदा किये जा रहे हैं और हम हैं कि उनकी हर गंदगी अपने सिर माथे धरे घूम रहे हैं.
वैसे, राजनीतिक दल भले ही मोंटेक की आलोचना कर रहे हैं लेकिन इस देश का आम आदमी के मन में एक सवाल यह भी आ रहा है कि काश! पूरा देश मोंटेक का शौचालय हो जाता. आखिर में एक सवाल तो ज्यों का त्यों है कि अपने शरीर का मैला त्यागने के लिए मोंटेक ने ३५ लाख ख़र्च किया है, मन का मैल दूर करने के लिए कितना ख़र्च करेंगे?
उभरता बिहार
बिहार से दूर दिल्ली और मुंबई में बैठे लोग बिहार के बारे में जैसा सोचने लगे हैं उस पर भी सवाल उठाये जाते हैं. कहा जाता है कि बिहार में वैसा कुछ बड़ा बदलाव नहीं हो रहा है जिसके लिए किसी नीतीश सरकार की तारीफ की जाए. ऐसा कहनेवाले बिहार से ज्यादा दूर नहीं बल्कि पटना में बैठे मिल जाएंगे जो मानते हैं कि बिहार में नीतीश कुमार की तानाशाही के कारण उनका जयगान हो रहा है. लेकिन कुछ तथ्य ऐसे हैं जिन्हें जानकर कोई भी आश्चर्य से बोल पड़ेगा कि क्या यह बिहार में हो रहा है? उससे भी बड़ा आश्चर्य यह कि यह जो हो रहा है उसमें बिहार सरकार या एनके सिंह की आंकड़ेबाजी बिल्कुल शामिल नहीं है. यह समाज और गैरसरकारी संस्थानों का मिलाजुला प्रयास है जो बिहार को बिजली के मामले बिल्कुल नये धरातल पर खड़ा कर रहा है. बिहारी समाज अपने दम पर उर्जा आपूर्ति की दिशा में आगे बढ़ रहा है.
आपको यह जरूर पता होगा कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बीते महीने अप्रैल में एक 600 मेगावाट सोलर बिजलीघर का लोकार्पण किया लेकिन क्या आपको पता है देश में सबसे ज्यादा सोलर पॉवर का इस्तेमाल कहां किया जाता है? वह गुजरात नहीं बल्कि बिहार है. हां, बिहार का रास्ता गुजरात से थोड़ा अलग है. यहां अक्षय उर्जा के जितने प्रयोग किये जा रहे हैं वे सब कुटीर उद्योग के रूप में हैं. सौर उर्जा भी बिहार में बिजली बनाने का आज सबसे बड़ा कुटीर उद्योग हो गया है और सौर उपकरण बेचनेवालों के लिए सबसे बड़ा बाजार भी. यह स्थिति अनायास नहीं है.
बिहार में प्रति व्यक्ति बिजली की उपलब्धता देश में सबसे कम है. यहां जब हम प्रति व्यक्ति बिजली की उपलब्धता की बात करते हैं तो उसका मतलब होता है वह बिजली जिसे सरकार ग्रिड प्रणाली से लोगों को उपलब्ध कराती है. इस व्यवस्था से मिलनेवाली बिजली मुख्यरूप से थर्मल पॉवर या फिर हाइड्रो पावर की बड़ी परियोजनाओं से प्राप्त की जाती है. सरकार द्वारा दी जानेवाली इस बिजली की आपूर्ति बहुत कम है और बर्बादी भी बहुत ज्यादा है. जो सरकारी आंकड़े हैं उनके अनुसार बिहार में 82 प्रतिशत लोग इस बिजली आपूर्ति से वंचित हैं. ग्रिड प्रणाली से जो बिजली लोगों तक पहुंचाई जाती है उसमें भी करीब 38 प्रतिशत रास्ते में ही नष्ट हो जाती है और जरूरी समय को जोड़ें तो बिजली केवल 28 प्रतिशत लोगों की जरूरतों को पूरा कर पाती है. इसलिए यहां हम उस उर्जा क्रांति की बात नहीं कर रहे हैं जो सरकार ग्रिड प्रणाली से लोगों तक पहुंचाती है.
यहां हम उस उर्जा क्रांति के बारे में बात कर रहे हैं जिसका भंडार अक्षय है. अक्षय उर्जा का यह भंडार कई स्रोतों में बिखरा पड़ा है और इसका उत्पादन भी बहुत केन्द्रित न होकर विकेन्द्रित है. अगर आज का बिहार महज 546 मेगावाट बिजली का उत्पादन करता है तो अक्षय उर्जा का उसके पास 18 हजार मेगावाट की क्षमता है जिसमें सबसे प्रमुख है सौर उर्जा. इसी सौर उर्जा का दोहन करने के लिए न केवल सरकार प्रयास कर रही है बल्कि समाज का बड़ा हिस्सा अपने घरों में रोशनी लाने के लिए सौर उर्जा का इस्तेमाल कर रहा है. इस काम में सरकार की सीधी मदद न भी हो तो नियम कानून के रूप में वह लोगों के आड़े नहीं आ रही है और वैकल्पिक उर्जा के प्रयोगों को बढ़ावा दे रही है. इन्हीं संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए बिहार सरकार ने 2011 में जिस नई उर्जा नीति की घोषणा की है उसमें अक्षय उर्जा की ओर विशेष ध्यान दिया है.
अक्षय उर्जा की इन्हीं संभावनाओं को देखते हुए गैर सरकारी संस्था ने 15 मई को एक दिन का एक अंतरराष्ट्रीय कांफ्रेस का आयोजन किया था जिसमें देश विदेश के विशेषज्ञ इकट्ठा हुए थे. इस कांफ्रेंस का उद्घाटन बिहार के उर्जा मंत्री बिजेन्द्र प्रसाद यादव ने कहा कि आजादी के बाद बिहार ने बिजली उत्पादन पर बहुत ध्यान नहीं दिया था लेकिन अब हम हर स्तर पर काम कर रहे हैं. उन्होंने उम्मीद जाहिर की कि आगामी चार से छह सालों में बिहार अपनी जरूरत की पूरी बिजली खुद पैदा करेगा जिसमें अक्षय उर्जा का बड़ा योगदान होगा. संभवत: ग्रीनपीस भी बिहार में अक्षय उर्जा की अकूत संभावना देखता है शायद इसीलिए अक्षय उर्जा के लिए वह बिहार में पूरी तरह से सक्रिय हो गया है. पिछले दो साल से उर्जा को लेकर बिहार ग्रीनपीस के लिए भी प्रयोगभूमि बन गया है. ग्रीनपीस के तहत बिहार को उर्जावान करने के काम में लगे रमापति कुमार कहते हैं कि अब वक्त आ गया है कि बिहार उर्जा को लेकर अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाए. अगर बिहार सरकार ठोस नीति के जरिए अक्षय उर्जा को बढ़ावा देती है तो वह दिन दूर नहीं जब बिहार उर्जा के मामले में पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो जाएगा.
बिहार में सरकार से परे जनता और गैरसरकारी संस्थाओं के स्तर पर जो छोटे छोटे प्रयोग हो रहे हैं उन्हें देखने के बाद रमापति कुमार की बात में दम नजर आता है.
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