बिहार से दूर दिल्ली और मुंबई में बैठे लोग बिहार के बारे में जैसा सोचने लगे हैं उस पर भी सवाल उठाये जाते हैं. कहा जाता है कि बिहार में वैसा कुछ बड़ा बदलाव नहीं हो रहा है जिसके लिए किसी नीतीश सरकार की तारीफ की जाए. ऐसा कहनेवाले बिहार से ज्यादा दूर नहीं बल्कि पटना में बैठे मिल जाएंगे जो मानते हैं कि बिहार में नीतीश कुमार की तानाशाही के कारण उनका जयगान हो रहा है. लेकिन कुछ तथ्य ऐसे हैं जिन्हें जानकर कोई भी आश्चर्य से बोल पड़ेगा कि क्या यह बिहार में हो रहा है? उससे भी बड़ा आश्चर्य यह कि यह जो हो रहा है उसमें बिहार सरकार या एनके सिंह की आंकड़ेबाजी बिल्कुल शामिल नहीं है. यह समाज और गैरसरकारी संस्थानों का मिलाजुला प्रयास है जो बिहार को बिजली के मामले बिल्कुल नये धरातल पर खड़ा कर रहा है. बिहारी समाज अपने दम पर उर्जा आपूर्ति की दिशा में आगे बढ़ रहा है.
आपको यह जरूर पता होगा कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बीते महीने अप्रैल में एक 600 मेगावाट सोलर बिजलीघर का लोकार्पण किया लेकिन क्या आपको पता है देश में सबसे ज्यादा सोलर पॉवर का इस्तेमाल कहां किया जाता है? वह गुजरात नहीं बल्कि बिहार है. हां, बिहार का रास्ता गुजरात से थोड़ा अलग है. यहां अक्षय उर्जा के जितने प्रयोग किये जा रहे हैं वे सब कुटीर उद्योग के रूप में हैं. सौर उर्जा भी बिहार में बिजली बनाने का आज सबसे बड़ा कुटीर उद्योग हो गया है और सौर उपकरण बेचनेवालों के लिए सबसे बड़ा बाजार भी. यह स्थिति अनायास नहीं है.
बिहार में प्रति व्यक्ति बिजली की उपलब्धता देश में सबसे कम है. यहां जब हम प्रति व्यक्ति बिजली की उपलब्धता की बात करते हैं तो उसका मतलब होता है वह बिजली जिसे सरकार ग्रिड प्रणाली से लोगों को उपलब्ध कराती है. इस व्यवस्था से मिलनेवाली बिजली मुख्यरूप से थर्मल पॉवर या फिर हाइड्रो पावर की बड़ी परियोजनाओं से प्राप्त की जाती है. सरकार द्वारा दी जानेवाली इस बिजली की आपूर्ति बहुत कम है और बर्बादी भी बहुत ज्यादा है. जो सरकारी आंकड़े हैं उनके अनुसार बिहार में 82 प्रतिशत लोग इस बिजली आपूर्ति से वंचित हैं. ग्रिड प्रणाली से जो बिजली लोगों तक पहुंचाई जाती है उसमें भी करीब 38 प्रतिशत रास्ते में ही नष्ट हो जाती है और जरूरी समय को जोड़ें तो बिजली केवल 28 प्रतिशत लोगों की जरूरतों को पूरा कर पाती है. इसलिए यहां हम उस उर्जा क्रांति की बात नहीं कर रहे हैं जो सरकार ग्रिड प्रणाली से लोगों तक पहुंचाती है.
यहां हम उस उर्जा क्रांति के बारे में बात कर रहे हैं जिसका भंडार अक्षय है. अक्षय उर्जा का यह भंडार कई स्रोतों में बिखरा पड़ा है और इसका उत्पादन भी बहुत केन्द्रित न होकर विकेन्द्रित है. अगर आज का बिहार महज 546 मेगावाट बिजली का उत्पादन करता है तो अक्षय उर्जा का उसके पास 18 हजार मेगावाट की क्षमता है जिसमें सबसे प्रमुख है सौर उर्जा. इसी सौर उर्जा का दोहन करने के लिए न केवल सरकार प्रयास कर रही है बल्कि समाज का बड़ा हिस्सा अपने घरों में रोशनी लाने के लिए सौर उर्जा का इस्तेमाल कर रहा है. इस काम में सरकार की सीधी मदद न भी हो तो नियम कानून के रूप में वह लोगों के आड़े नहीं आ रही है और वैकल्पिक उर्जा के प्रयोगों को बढ़ावा दे रही है. इन्हीं संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए बिहार सरकार ने 2011 में जिस नई उर्जा नीति की घोषणा की है उसमें अक्षय उर्जा की ओर विशेष ध्यान दिया है.
अक्षय उर्जा की इन्हीं संभावनाओं को देखते हुए गैर सरकारी संस्था ने 15 मई को एक दिन का एक अंतरराष्ट्रीय कांफ्रेस का आयोजन किया था जिसमें देश विदेश के विशेषज्ञ इकट्ठा हुए थे. इस कांफ्रेंस का उद्घाटन बिहार के उर्जा मंत्री बिजेन्द्र प्रसाद यादव ने कहा कि आजादी के बाद बिहार ने बिजली उत्पादन पर बहुत ध्यान नहीं दिया था लेकिन अब हम हर स्तर पर काम कर रहे हैं. उन्होंने उम्मीद जाहिर की कि आगामी चार से छह सालों में बिहार अपनी जरूरत की पूरी बिजली खुद पैदा करेगा जिसमें अक्षय उर्जा का बड़ा योगदान होगा. संभवत: ग्रीनपीस भी बिहार में अक्षय उर्जा की अकूत संभावना देखता है शायद इसीलिए अक्षय उर्जा के लिए वह बिहार में पूरी तरह से सक्रिय हो गया है. पिछले दो साल से उर्जा को लेकर बिहार ग्रीनपीस के लिए भी प्रयोगभूमि बन गया है. ग्रीनपीस के तहत बिहार को उर्जावान करने के काम में लगे रमापति कुमार कहते हैं कि अब वक्त आ गया है कि बिहार उर्जा को लेकर अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाए. अगर बिहार सरकार ठोस नीति के जरिए अक्षय उर्जा को बढ़ावा देती है तो वह दिन दूर नहीं जब बिहार उर्जा के मामले में पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो जाएगा.
बिहार में सरकार से परे जनता और गैरसरकारी संस्थाओं के स्तर पर जो छोटे छोटे प्रयोग हो रहे हैं उन्हें देखने के बाद रमापति कुमार की बात में दम नजर आता है.
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