दुनिया इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुकी है, किन्तु मुस्लिम समुदाय का अधिकांश भाग अभी भी मध्यकालीन मान्यताओं की जकडन में है तो इसकी बड़ी जिम्मेदारी सेकुलरिस्टों की है, जो वोट बैंक की राजनीति के कारण मदरसा तालीम, उर्दू, बहुविवाह , अनियंत्रित प्रजनन आदि मुद्दों पर कट्टरपंथियों का समर्थन करते आये हैं. अभी उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान मुस्लिम समाज को अपने पाले में करने के लिए सेक्युलर दलों में होड़ लगी थी. चुनाव से ठीक पूर्व केंद्र सरकार ने पिछड़े वर्ग के लिए निर्धारित २७ प्रतिशत आरक्षण में से अल्पसंख्यकों को ४.५ फीसदी आरक्षण देने का निर्णय लिया. चुनाव के बिच में कांग्रेस के एक वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री ने मजहब के आधार पर मुस्लिमों को अलग से आरक्षण देने की घोषणा क्या की , अन्य छिटपुट दलों ने भी आरक्षण मुस्लिम आबादी के अनुपात में करने तक का वादा कर डाला. हाल ही में पंचायती चुनाव को देखते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य के करीब तीस हजार से अधिक इमामों को सम्मान के तौर पर हर महीने २५०० रुपये देने, इमामों को निजी घर बनाने के लए सरकार की ओर से भूमि देने और भवन निर्माण के लिए आर्थिक सहायता देने के अलावा अल्पसंख्यकों के लिए बीस हज़ार घर बनाने, अल्पसंख्यको के रोजगार के लिए रोजगार बैंक स्थापित करने और उनकी शिक्षा के लिए मदरसों की स्थापना की घोषणा की थी. समाज के समग्र विकास को ताक़ पर रखकर जब वोट बैंक के लिए इस तरह एक समुदाय पर विशेष कट्टरवादी विचारधारा को पोषित किया जाएगा तो विकृतियाँ ही पैदा होंगी. जिस देश में अल्पसंख्यकों के मजहबी फ़र्ज़ को हज सब्सिडी के नाम पर सरकार पूरा कराती हो उस देश के बह्संख्यकों की भावनाओं के साथ ऐसा खिलवाड़ क्यों? मुस्लिम लीग के जिन नेताओं ने बटवारें का समर्थन किया वे विभाजन के बाद पाकिस्तान नहीं गए. वे रातोरात कांग्रेस में शामिल हो गए. पार्टी बदलने से उनकी मानसिकता नहीं बदली. वही विभाजनकारी मानसिकता सेक्युलरवाद के नाम पर पोषित हो रही है, जिसकी तार्किक परिणति बागपत खाप का तालिबानी फरमान है.
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